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|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
लखनक उर बहु शंका भेल,
अनुगामी छथि मायक भेल।
मारि छोड़ौता सभटा फंद,
बनता नृपअवधक निर्द्वन्द।
धनुष उठा पुनि तीर चढ़ाए,
वीरासन लए लेल लगाए।
देखि लखनकें अतिसैं क्रोध,
राम आबि कयलनि अवरोध।
भरथक पावन रहल चरित्र,
व्यर्थ ने मनकें करू अपवित्र।
ककरहु हाथ ने अछि किछु शस्त्र,
कोना चलत क्यो लड़ए निरस्त्र।
भरथक प्रति नहि करू संदेह,
घटत ने कहियो हुनकर नेह।
तखनहि भरथ आबि अकुलाए,
खसला राम चरण पर जाए।
करथि शान्त कतबो रधुबीर,
किन्तु भरथ उर धरए ने धीर।
कहथि भरथ हम छी निर्दोष,
मन नहि राखिय कनिओ रोष।
जीवि ने सकब अहाँ बिनु राम,
व्याकुल मर रह आठो यामं
क्रंदन भरथक कयल विभोर,
ककर नयन नहि बहि गेल नोर।
भरथक मुंह सुनि पितुक बिछोह,
खसला राम, भूमि तजि सोह।
गुरू वशिष्ठ दए बहु उपदेश,
रामक मनक मेटाओल क्लोश।
वेद निहित सभ कएलनि कर्म,
राम, पितुक हित छल जे धर्म।
सायं काल भेल बैसार,
भरथक कथनक छल निस्तार।
जनक नृपति रानी संग आबि,
भेला सम्मिलित अवसर पाबि।
सबहक सहमति भरथक संग,
प्रीति उदधि जनु धएल तरंग।
कैकेयी कएलनि चित्कार,
खसलि धरणि पर खाए पछाड़।
बजली क्षमिय दोष रघुनाथ,
अधम जानि, घुरि करिय सनाथ।
जन्म जन्म केर छल जे पाप,
सभ मिलि देलक एतेक संताप।
मेटत हमर ने कहियो कलंक,
जौं नहि घुरब सुनिय पति रंक।
दौगि माय केर गेला समीप,
बोधल बहुविधि रघुकुल दीप।
कहल करू जुनि मन संताप,
विधिक विधानक नहि अछि नाप।
गति अनंत सभ कृपा अनंत,
ओकर समक्ष ने क्यो बलबंत।
अहाँक दोष नहि अछि किछु माय,
विधि विधान अनुगत समुदाय।
अएलहुँ वन बिच पितुु बच मानि,
विधि आमंत्रण समुचित जानि।
एतए ऋषि मुनि उठबथि कलेश,
रही अवध हम बनल नरेश।
ई कथमपि नहि उचित बुझाए,
हरव कष्ट रहि बन समुदाए।
दोसर रघुकुल केर अछि रीति,
प्राण जाथि नहि वचन प्रतीति।
कष्ट प्रजाकेर मेटब धर्म,
तहि पथ चलब नृपति के धर्म।
ठाढ़ करू जुनि क्यो अबरोध,
साज्जलि सभसँ अछि अनुरोध।
भरथ चलौता अवधक राज,
हमर अवधि धरि विपिन समाज।
अवधि बितैत की होयत देरि,
कुशल सहित हम आयब फेरि।
एहि विध हैत दुहुक निदान,
पितुक वचन कुलरीति विधान।
गुरू वशिष्ठ कयलनि स्वीकार,
रामक सुनि प्रिय विषय विचार।
स्वीकारल जखनहि गुरू बात,
करूणा पूर्ण छल भरथक गात।
बिना राम पद अवधक तुच्छ,
प्राण बिना जनु तन रह छुच्छ।
कनिते बजला भरथ कुमार,
देथु पादुका करूणा गार।
पादुक सिंहासन पर देब,
सतत प्रेरणा ओकरे लेब।
राम सहर्ष पादुक दए देल,
भरथ उठा निज सिर धएलेल।
छल ई भरथक मिलन प्रसंग,
सुनिकरइत अछि पुलकित अंग।

चित्रकूट तजि भरथजी, अयला पुनि निजराज।
संग माय गुयजन सहित, मंत्री सकल समाज।
आबि अयोध्या पादुका, सिंहासन पर राखि।
चलबै लगला राज्यकें, राम नाम यश भाषि।
लोक प्रसंशा करे छल, देखि भरथ केर काज।
गुरू मंत्रीगण प्रजागण, अवधक सकल समाज।
</poem>
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