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{{KKRachna
|रचनाकार=बैजू मिश्र 'देहाती'
|संग्रह=मैथिली रामायण / बैजू मिश्र 'देहाती'
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<poem>
मेधनादकें दसमुख कहलनि,
जाउ बान्हि बानरकें लाउ।
करब दुदर्शा आइ ओकर हम,
खाहे सैन्य जतेक लएजाउं
गेला इन्द्रजित बानर बान्हए,
सकल सैन्य दल मारल गेल।
अपनहु गदा ततेक ओ खैलनि,
प्राण हुनक अति व्याकुल भेल।
हारि इन्द्रजित कइये देलक,
ब्रहह्मास्त्रक निर्मम उपयोग।
होमय नहि अपमान अस्त्रकेर,
स्वीकारल हनुमत ई भोग।
नाग फासमे बान्हि इन्द्रजित,
जऽ आएल रावण दरबार।
रावण मारि ठहाका मदमे,
कयलक कटुतर वचन प्रहार।
के तों थिका कहाँ सऽ अएलह,
देलह हमर फल बाग उजारि।
सुत संग सेना सेहो मारलह,
किए ने तोरा दी हम मारि।
हनुमत कहत सुनह हौ रावण,
हम त्रिभुवन पति रामक दूत।
जनिक प्रियाकें तों हरि लैलह ,
तनिके छी हम छोट सपूत।
आयल छलहुँ सिया सुधि लेमए,
उदर भूख लागत अत्यंत।
रोकए जे आएल तकरेटा,
कए देलहुँ हम प्राणक अंत।
न्याय बिमुख हम भेलहु कतहु निह,
की भूखलकें नहि अधिकार?
फूलो फल खा भूख मेटावए,
छोरह चूढ़ा दही अचार।
छैं तों बहुत ढ़ीठ रौ बानर,
रावण बाजल दम्भ समेत।
इन्द्र्र कुवेर वरूण हमरा बस,
तोहर रामकेर मूल्य कतेक?
बाप पठौने छै जंगलमे,
बौआइत छौ गृहणिक हेतु।
मसलि देबै चुटकीमे सभकें,
फहरि रहल नभमे मम केतु।
अहंकार छौ नाशक कारण,
हनुमत कहल सुनह दसकंध।
हमहू तोहर जनै छी सभटा,
बात करह जुनि भए मदअंध।
बलशाली जौं रहितह तोंतऽ,
धनुष तोड़ि लबितह सुकुमारि।
हरण चोरि कए तों कए लेलह,
बात हंकै छह छी बलधारि।
बालि तोरा काँखहिमे रखलनि,
मासक मास बितल छौ काल।
तैयो अहंकार छह रखने,
लाज ने होइ छौ बजबैत गाल।
दर्प छोड़ि तों जाह शरण,
संग जानकी नेने जाह।
छथि कृपालु ओ कृपा देखौथुन,
बनले रहबह नृप बेपरवाह।
सुनितहि ई अपमान जनक कथ,
खीचिम्यान सऽ निज तरूआरि।
दौगल बधहित हनूमंतकें,
मार मार बाजल ललकारि।
तखनहि आवि विभीषण बजला,
दूत हतव अछि नीति विरूद्ध ।
आन दंड दऽ कुशल घुरबिऔ,
होयत नीति युक्त ई शुद्ध।
मानि गेल रावण विचारकें,
पशु नाड़्गरिसँ रखइछ नेह।
तें ओ हटा पठाबह एकरा,
रावण कहल बचा कऽ देह।
सुनि आदेश रावणक तत्क्षण,
हनुमतकें लायक सभ खीच।
अनि वस्त्र बहु नाड़्गरि लपटल,
तेल उझललक नगरक बीच।
आगि लगौलनि हँसी खुशीमे,
दनुज सहित पुरवासी लोक।
मुदा जखन पुर जरबए लगला,
कहल ने जाए कतेक छल शोक।
किछुए क्षणमे भष्म भेल छल,
सोनक लंका बनल मशान।
हाहाकार मचल छल चहुदिश,
चारू दिस छल गर्द निसान।
लंका जरा सिंधुमे कुदला,
नाड़्रि केर छल आगि मिझाए।
आगि मिझा सीता लग अएला,
सभटा हुनका देल सुनाए।
हाथ जोड़ि हनुमत पुनि बजला,
आज्ञा हो हम घुरि चलिजाइ।
ओतए सभक सभ चिंतित हैता,
कहब कथा सभ श्रीरघुराइ।
बेस जाह आशीष दै छिऔ,
कहइत बहइत छल दृगबान।
एक बात रघुवारके कहबनि,
आब हमर जीवन अछि थोड़।
लए आज्ञा मां सियाकें, विदा भेला हनुमान।
आबि गेला एहि पार ओ, शीघ्र बिना ब्यवधान।,
आबि गला हनुमत मुदा, आनन छल गम्भीर।
नहि किछु बाजथि सुनथि नहि, छूटल सबहक धीर।
जामवंतसँ जा कहल, सभ मिलि बनि जिज्ञासु।
हमरा लोकनि अधीर छी, अहीं कहू किछु आसु।\
</poem>
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