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खून से तर झील / कुमार रवींद्र

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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>फिर वही पगडंडियाँ हैं
जंगलों की
शहर भर में
वही मृगछौने - वही हैं भील

देह नंगी-थके कंधे
और भूखे पेट
हर गली में
हाँफते हैं
हो रहे आखेट

आँगनों पर-छतों पर
मँडरा रही है
एक भूखी चील

बस्तियों में हैं गुफाएँ
घर नहीं
हैं माँद
भेड़िये खूंखार फिरते
बाड़ आये फाँद

प्यास उनकी बढ़ गयी है
खून से तर
हो रही है झील </poem>
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