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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>रिश्ते-नाते, आपसदारी
सूली सभी चढ़े
जंगल की चौहद्दी टूटी
सहमे गाँव खड़े

दिन भर हुए मुकदमे
कितने बँटवारे-हिस्से
रोज़ सुनाते बूढ़े बच्चों को
बालिग़ किस्से

सूख गया पानी आँखों का
पोखर हुए गढ़े

नये-नये पैबन्दों वाले
सबके हैं छाते
आधी-परधी रोटी
लेकिन लंबे हैं ख़ाते

बँटे खेत-खलिहान
रोज़ गेहूँ के भाव चढ़े

पाँवों के नीचे गड्ढे हैं
सब उनको ढाँपें
टूटी छत पर बिछा रहें हैं
सड़ी हुई झाँपें

दस्तावेज़ महल के
लेकिन उनको कौन पढ़े
</poem>
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