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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>जंगल सूखे- बँटे सरोवर
बित्ता भर बस पानी
थके नीम पर पीले पत्ते
गिने चिरैया कानी

ओसारे में रेत उड़ाये
दुपहर सूनी-सूनी
तचे बरगदों की छाँही में
तडपे काँवर दूनी

कौन भरे
छूछी गागर को
नदिया धूप बिलानी

घर-घर
सूरज की पहुनाई
रस्ते लपटें ओढ़े
जली घास की
आहें सुनकर
झुलसे बरगद पोढ़े

सावन आये-
भादों आये
वादे वही ज़बानी
</poem>
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