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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>सुबह-सुबह
फेंक रही धूप जाल
बूढ़ा है कमल-ताल

बाँच रहे सूरज को
भोर के मछेरे
खेतों-खलिहानों में
बिछे नये डेरे

किन्तु रहे
नावों के फटे जाल
बूढ़ा है कमल-ताल

काँप रहे जल पर हैं
कुछ नई सुगंधें
घाटों पर चलते हैं
नये-नये धंधे

लहरों में
किंतु रहे हाँफते अकाल
बूढ़ा है कमल-ताल
</poem>
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