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कमाल की औरतें २१ / शैलजा पाठक

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<poem>जरा सी बची जि़‹दगी में जरा सी बची औरत-
जीना चाहती थी जरा सा

जरा सी बची हुई औरतों ने
संभाल कर रखा है खर्च का पैसा
अपनी गांठ से खोलती है आकाश तुम्हारी हथेली पर
रखती हैं जरा सी तसल्ली
तुम जरा कम बचे आदमी
कितना कम समझ पाते हो औरत को

जरा सी बीमार पड़ती है औरत
जरा सी दवाई में हो जाती है ठीक
जरा-जरा सी जल जाती है तवे कड़ाही से
जरा सा खुरचती है भगोना
जरा सा खाकर गठरी बन जाती है
तुम जरा भी नहीं देखते कि
जरा-जरा सी देर में उठ कितना पानी पी जाती है

जरा सी पर्ची में रखती है सारे हिसाब
जरा से तेल में चलाती है काम
जरा-जरा करके खंगालती है कपड़े
जरा सी आंख में चुभती है नैहर की याद
जरा जरा सुबकती हैं औरतें
तुम जरा भी नहीं जान पाते
जरा सा डाक खाने की दहलीज़ पर बैठी हुई औरत
जरा से पोस्ट कार्ड पर निचोड़ देगी अपना अचरा
जरा से याद रह गये पते पर पहुंचना चाहेगी
जरा सा ही सही

मौत आखिरी हिचकी के साथ नहीं मारेगी
औरत जरा सा रंग देख लेने की चाह में
जरा सा खुली आंख से
उस खाली पन्ने पर गड़ाएगी नजरें
जहां वो दर्ज करती रही मिलने की तारीखें
बदल-बदल कर

हैरान होती हुई मरेगी औरत
उसका जरा सा मन तुम जरा भी ना समझ पाए।
</poem>
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