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कमाल की औरतें ४१ / शैलजा पाठक

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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>चेहरे पर दिन
थका-थका सा रहता था
आंखों में रातों की
दहशत सहती थी
सब कुछ छिपा लिया
मुझसे बस इतना कह कर
आजकल काम बड़ा रहता है ƒघर में ।
***
तुम्हारी बनाई
इस खूबसूरत बावड़ी में
मेरी दिशाओं के सभी कोने
किनारों से टकरा कर
आहत हो रहे हैं
एक बार
मैं समंदर छूना चाहती हूं।
***
तुम कल भी आदमी थे
तुम आज भी आदमी ही हो
बदला तो सिर्फ इतना
कि अब मैं सिर्फ औरत नहीं ।
***
समय था
कि
मैं तुम्हारी जरूरत बन गई
अब यूं कि
अपनी जरूरत भर
पहचानते हो तुम।
***
तुम्हारे लिए
गिलास भर पानी लिए
खड़ी औरत की आंखें
गिलास से ’ज्यादा भरी थीं
तुम जरूरत भर देखते हो
और हक भर दिखाते हो।
***
हमेशा उस नाजुक
डोर से
वे रंगीन मछलियां
बंधने आतीं
पर बिंध जाती।
***
तुम्हारे देर से आने पर
मैं फ़िक्र जताती हूं
और मेरे देर से आने पर
तुम शक।</poem>
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