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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>रामनगर की रामलीला में
हर शाम रंगे जा रहे हैं
राम के चेहरे
मुल्तानी मिट्टी के लेप से

जरा लीपी पुती ज़िन्दगी भी है
इन दिनों

चिरई गांव का बंसी
अपनी सŽजी का ठेला
ढांप के धर दिया है
अब एक महीने राम बनना है

मंडली वाले सारा दिन करवाते हैं
कुछ ना कुछ काम

पर...सियावर रामचंद्र की जय
सुनते ही बंसी भूल जाता है
अपनी जि़‹दगी की सारी उलझनें

अपने कंधे पर धनुष रखते
फड़कने लगती हैं उसकी भुजाएं
वो चलाना चाहता है एक जादुई तीर
जिससे बदल जाये देश-दुनिया
दुख-तकलीफें
रामराज खाली किताब में है
कभी किसी ने नहीं देखा
अब तो देखना भी ना चाहें ऐसा राज

जितनी ईमानदारी से बने हम राम
उतनी ईमानदारी से प्रभु बंसी बन के देखो

सब्ज़ी के ठेले को दिन दुपहरिया
गली-गली ठेलते गुहार लगाते
सूख जाता है कंठ...सूख जाती हैं
हरी सब्जियां

मुरझाया मुंह लिए लौटते हैं घर
साथ लाए चंद सिक्कों से बची
रहती हैं सांसें

जाने दो तुम नहीं समझोगे ...

आज रात बनवास के बाद
दशरथ के रुदन वाली लीला है

सभी कलाकार अभ्यस्त हैं
ऐसी लीला के अभ्यास की
कौनो जरूरत नहीं।</poem>
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