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|संग्रह=राग हंसध्वनि / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - तीन</b>

<b>[ बाहुक अर्थात नल सरयू के तट पर एकांत में बैठे हैं | सूर्यास्त हो चुका है | दूर क्षितिज पर हंसों की पाँत उड़ती हुई जा रही है | नदी में दूर एक पालदार नाव तैर रही है | नल विचारों में खोये हुए हैं ]</b>

<b>नल -</b> ( विचार-स्वर ) : हंसों की पाँत दूर चली गई -
मन मेरा ...
शब्दहीन ... अर्थहीन ...
खोज रहा इधर-उधर आस्था के द्वीप को -
डोंगी-सा तैर रहा ...
क्षितिजों के पार तक |
और ये नदी के तट -
आपस में जुड़े हुए
फिर भी हैं अलग-अलग -
लगते पर्याय हैं
मेरी ही प्रियाहीन साँसों के |

दोष किसे दूँ ...
अपराधी मैं ही हूँ |

हाय! अब कहाँ होगी दमयन्ती ?

उस दिन मैं ...
कैसा असमर्थ हुआ ...
क्या करता ?

<b>[ पारदर्शिका में दृश्य उभरता है - घने वनांतर में नल और दमयन्ती एक वृक्ष की छाया में लेटे हुए हैं | दमयन्ती सो रही है | नल दमयन्ती की शिथिल थकी हुई आकृति को देखते हैं | उनके चेहरे पर गहरा अवसाद एवं पीड़ा का भाव दिखाई देता हे | वे स्वयं से कहते हैं ]</b>

<b>नल -</b> (आत्मालाप ) : राक्षस हूँ मैं अपराधी ...
हाय ! यह मेरी सुकुमारी प्रिया...
आज ...
इस कठोर धरती पर सोई ...
गिरे हुए जवा-कुसुम सी लगती
शिथिल और कांतिहीन |
साथ इसे लिये हुए भटक रहा कहाँ-कहाँ
कैसा हूँ क्रूर मैं !

कहने को पति हूँ मैं ... स्वामी हूँ
यह भूखी-प्यासी है दिन-भर से
और मैं अधनंगा ...
अन्त्यज-सा
पातकी .... नपुंसक-सा
देख रहा हूँ इसकी यह दशा ...
क्या करूँ ?

मुझे छला सोने के पक्षी बन
आज सुबह ... पाँसों ने ...
ढकने को देह एक अधोवस्त्र
उसको भी छल से ... ले गये पक्षी वे
मैंने था चाहा उन्हें पकड़ना
इस संकट में...
मेरा दुर्भाग्य मुझे व्याप रहा |
और इधर ...
रेशम की सेज पर जो रही सोती सदैव
आज पड़ी ... इस निर्जन वन में
इस सूखी धरती पर -
क्या करूँ ?

मैं हूँ अभिशप्त
और इसने भी संग-संग मेरे
विपदा जो आन पड़ी ...
उसको स्वीकारा है -
क्या करूँ ?

स्वर्णकांति इसकी यह देह ...
पारिजात- पुष्पों से भी कोमल ...
छूती थी जिसे वायु भी ... इस भय से
कुम्हला न जाये कहीं
और जिसे छूकर जल
होता था कान्तिमान - सुरभिमत्त
आतुर हो जाती थी सूर्य-रश्मि भी भ्रम से ...
जिसे देख ...
हाय ! वही...
आज पड़ी पथ की इस धूल में -
क्या करूँ ?

देव क्या कहेंगे मुझे
देख यह अनर्थ आज -
व्यंग्य से मुस्काते होंगे वे ...

<b>[ देववाणी सुनाई देती है, जो नल के मन में गूँजती जाती है ]</b>



<b>देववाणी -</b> : नल, यह क्या ...
तुमने यह कैसा सुख दमयन्ती को दिया -
इसीलिए तुमने थी हमसे की होड़ यों |
नाटक वह प्रीति का अद्भुत था ...
पता नहीं था हमको
तुम ऐसे निकलोगे वीर्यहीन और क्लीव
वरना हम ...

<b>[ देवों की उपहास करती हँसी वातावरण में गूँजती है | नल अत्यंत विचलित-व्यथित- आत्म-विह्वल दिखाई देते हैं | पारदर्शिका लोप हो जाती है - नल का आत्मालाप चलता रहता है ]</b>

<b>नल -</b> (आत्मालाप ) : कैसी वह मूर्च्छा थी आत्मा की !

ठगा गया ... छला गया पासों से ...
पुष्कर से हारा था द्यूत में -
दाँव लगा था सब कुछ ...
राजपाट - कीर्ति धवल - आस्था - सम्मान- तेज |
सुनी नहीं मैंने तब ...
व्याकुल दमयन्ती की पुकार ...
आतुर उद्बोधन भी ...

<b>[ पारदर्शिका में स्मृति-दृश्य उभरता है | नल और पुष्कर सभागार में द्यूत-क्रीड़ा में तल्लीन हैं | नल बार-बार दाँव हार रहे हैं - उत्तेजित होकर वे और बड़े दाँव लगते हैं और हार जाते हैं | पुष्कर और उसके दुष्ट साथी अट्टहास करते हैं | पुष्कर हंसते हुए कहता है ]</b>

<b>पुष्कर -</b> : महाराज ... अग्रज ...सम्राट बन्धु !
यह भी दाँव आपके विरुद्ध गया -
हार गये बाजि-गज सेना भी -
रत्न-कोष पहले ही मेरा था हो चुका |
और कुछ लगायें अब दाँव पर |

<b>नल -</b> (उत्तेजित होकर ) : पुष्कर ...!
यह स्वर्ण- मुकुट और राजदंड यह
मेरी प्रभुसत्ता के जो प्रतीक ...

<b>[ सभागार में तभी महामंत्री कुशिक सहित दमयन्ती प्रवेश करती है | दोनों के चेहरों पर तनाव स्पष्ट दिख रहा है | दमयन्ती नल से कहती है ]</b>

<b>दमयन्ती -</b> : महाराज ! ... चेतें अब
बंद करें यह अनर्थ, आर्यपुत्र !

प्रभुसत्ता आपकी नहीं है -
यह तो है जनता की -
आप मात्र प्रतिनिधि हैं -
उसको मत दाँव पर लगायें यों |
राजदंड और मुकुट
जनता की इच्छा के बिम्ब हैं -
तिरस्कार करें नहीं उनका यों |

देखें सभाद्वार पर
जनता के प्रतिनिधि एकत्रित हैं -
विद्वज्जन - ग्राम-प्रमुख |
दूर ग्राम-नगरों से आये ये
प्रार्थी हैं आपसे -
बंद करें यह अनर्थ |

ऋषियों के आश्रम से आये ये
वटुक और सन्यासी -
श्रेष्ठी और नगर-सेठ -
सैनिक अधिकारी भी -
सबके सब कह रहे एक ही बात. सुनें -
बंद करें यह अनर्थ |

सुनें ज़रा ...
बच्चों का- युवकों का- वृद्धों का- जन-जन का
कोलाहल -
बंद करें यह अनर्थ |



<b>पुष्कर -</b> : अहा ! महारानी आशंकित हैं
उनके महाराज
यदि हार गये दाँव कहीं
सत्ता के भोग का
सारी सुख-सुविधा का
महल-अटारी का क्या होगा ?

मैं भी तो जनता का प्रतिनिधि हूँ -
राजप्रुत्र और कुशल शासक भी -
जनता की इच्छा का क्या मुझको ध्यान नहीं ?


यह तो बस क्रीड़ा है -
इससे आशंकित क्यों होतीं हैं भाभी यों ?

हम दोनों भाई हैं -
सहोदर हैं |
पुरुषों का खेल यह
युग-युग से प्रचलित है |
फिर क्यों महारानी को इस पर आपत्ति है ?

चलिए महाराज दाँव
देखिए. प्रतीक्षा हैं कर रहे पाँसे ये आपकी
आतुर हो |

मुकुट और राजदंड आपके
क्या ...
इतने असमर्थ हैं ?

<b>[ पुष्कर हँसता है | नल आहत दर्प से उत्तेजित हो पाँसे फेंकते हैं | दमयन्ती मर्माहत हो अर्द्ध-मूर्च्छित अवस्था में फटी आँखों से नल के पांसों को फिर विरुद्ध जाते देखती रह जाती है | विजयी पुष्कर का दर्पभरा अट्टहास गूँजता है ]</b>

<b>पुष्कर -</b> : भाई जी महाराज !
हार गये यह भी दाँव आप तो |
देखें, ये राजदंड और मुकुट मेरे हैं -
राज हुआ मेरा अब ...

बहुत दिनों भोग लिया सत्ता-सुख -
अब तुम लो भिक्षा-पात्र हाथों में
और करो भिक्षाटन ...
गली-गली सपरिवार -
नगर-नगर ग्राम-ग्राम
जय बोलो महाराज पुष्कर की |
दास-कर्म करना हो ... यहीं रहो
महाराज पुष्कर की सेवा में -
थोडा उच्छिष्ट ... मिल जायेगा तुमको भी
भोगों का |

<b>[ स्मृति-दृश्य एकाएक धुँधला जाता हे | नल वर्तमान में लौट आते हैं | उनके चेहरे पर अतीव पीड़ा. अवसाद, आत्म-वंचना और मर्मान्तक पश्चात्ताप का भाव अंकित है | उनका आत्मालाप एक चीत्कार सा बनकर उन्हें उद्वेलित करता है ]</b>

<b>नल -</b> ( आत्मालाप ) : हाय !
कैसा अपमान वह !
असहनीय पीड़ा का वह प्रसंग
आज भी,,, रग- रग में
लावा-सा ढल रहा -
जलती है शिरा-शिरा
चिटख रही चिनगारी अंगों के आर-पार |
और फिर निरीह हो
स्वयं से पलायन वह ...

भोली दमयन्ती को ...
आया मैं छोड़ बीच जंगल में
उसके ही आँचल से लेकर यह अधोवस्त्र |
राजा था
किन्तु हुआ चोर मैं ...
अपनी ही पत्नी के आँचल का |
देवो, दो दंड मुझे बार-बार |
फिर भी यह पातक -
अपनी ही पत्नी के चीर-हरण का -
नारकीय पाप यह -
शमन नहीं होगा कल्पों के बाद भी |

पता नहीं
कहाँ होगी दमयन्ती अब ?
आशंकित होता है कातर मन बार-बार
क्या करूँ ?
हिंसक था वन वह
और ... थी दमयन्ती निराधार |
वह निर्मम परित्याग -
अधम और पापी मैं ...
क्या करूँ ?

<b>[ आंतरिक व्यथा और अनुताप से नल विक्षिप्त- से हो जाते हैं | उनके मन में उभरी पारदर्शिका में हिंस्र पशुओं से घिरी हुई और दारुण विलाप करती दमयन्ती की कातर आकृति उभरती है | पशुओं की भयंकर दहाड़ और दमयन्ती के विलाप के बीच एक चीख गूँजती है, जो नल के अंतर्मन को दहलाती हुई उसमें समा जाती है | नल अत्यंत व्याकुल-विचलित हो वहीँ सरयू की रेती पर मूर्च्छित हो जाते हैं ]</b>
</poem>
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