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|संग्रह=अंतिम महारास / कुमार रवींद्र
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<b>दृश्य - चार</b>

<b>कथा वाचन</b> - अद्भुत विक्रम-कौशल का
यह अवतार-पर्व ... !

सम्राट मगध के
जरासंध के हुए आक्रमण बार-बार
मथुरा नगरी हो गई इस तरह क्षीण-शक्ति
यादव-कुल का दायित्त्व
कृष्ण के कंधों पर
क्या करें, कृष्ण हैं सोच-मग्न |

<b>[सूर्यास्त के उपरांत का हल्का अंधकार | मथुरा नगरी से बाहर एक पहाड़ी पर कृष्ण विचार-मग्न बैठे हैं]</b>

<b>विचार स्वर</b> - दिन बीते
महीनों हुए
और फिर वर्ष हुए |

यह जरासंध है रक्तबीज
मायावी है
अति बलशाली |
आक्रमण झेलते बार-बार
हो गये हीन-बल यदुवंशी |
कितने ही कुल हो गये क्षीण
इन बार-बार के युद्धों में -
रोती माताएँ - विधवाएँ
बच्चे अनाथ
सब पीड़ित हैं |
क्या किया जाये ?
प्रतिकार करें कैसे
अतिबल इस दानव का
यह सोच-सोच
थक गये वृष्णि-अंधक कुलीन |

अब सभासदों में भी भय का संचार हुआ
क्या किया जाये ?
फिर से आता है जरासंध
उसका प्रतिकार नहीं संभव
क्या किया जाये ?

दक्षिण समुद्र-तट से आता है
कालयवन - विकराल काल
असुरों की भारी सेना ले |
इन दोनों के बीच फँसी मथुरा नगरी
क्या किया जाये ?


<b>[कृष्ण के चेहरे पर चिंता का भाव स्पष्ट है - वे व्यग्र लगते हैं, उद्वेलित और विचलित भी | इस नितांत हताशा भरे एकांत में दूर से वंशी की पहले धीमी धुन सुनाई देती है, फिर वह तेज और तेज हो जाती है | आँख बंदकर कृष्ण इस स्वर को सुनते हैं | इसके साथ ही राधा का स्वर भी सुनाई देता है | राधा की पारदर्शी आकृति भी कृष्ण की आकृति में झिलमिलाती है]</b>

<b>राधा -</b> यह क्या, कान्हा
तुम हुए शिथिल-मन और क्लांत !
यह कैसी लीला है विचित्र, कहो ?
तुम हो अवतारी पुरुष
और सभी के त्राता |
रक्षक तुम ही तो रहे हम सबके संकट में |
याद करो
जब दह में भीषण कालिय नाग बसा था आकर
गोकुल पर जल का ... संकट गहराया था ...

<b>[राधा का स्वर डूब जाता है - पारदर्शिका उभरती है | पारदर्शिका में दह के किनारे कोलाहल और विलाप करती गोप-गोपियों की भीड़ दिखाई देती है | बीच में विलाप करतीं यशोदा मैया और आँसू बहाते नन्द बाबा दिखाई देते हैं | एक ओर राधा भी खड़ी है - विकल किन्तु आश्वस्त | दह में जल का भयंकर मंथन हो रहा है | उसमें बीच-बीच में कालिय नाग की विशाल देह और कृष्ण की श्याम वर्ण कोमल आकृति दिखाई देती है | काफी देर तक यह युद्ध चलता रहता है | अंत में कृष्ण कालिय नाग के मस्तकों को पैरों से कुचले हुए उसके फनों पर नृत्य करते स्पष्ट दीखते हैं | उनकी वंशी की गूँज सुनाई देती है | फिर राधा का स्वर उभरता है]</b>

<b>राधा -</b> कैसा उद्वेलक वह प्रसंग !
दानवी नाग को नाथ क्षणों में केवल कुछ
तुमने था दिया नया जीवन हम सबको तब -
दैवी आस्थाओं का था...
वह अभिनव प्रसंग |

ऐसे ही उस दिन भी, माधव !
जब गोपोत्सव के अवसर पर
थे देवराज हो गये कुपित -
प्रलयंकर मेघों ने धरती को घेरा था |
उस महावृष्टि में
हुआ सभी कुछ था जलमय |
तब भी तुमने ही गोवर्धन को साधा था |

<b>[पारदर्शिका में गोवर्धन-धारण का प्रसंग झाँकियों के रूप में प्रस्तुत होता है]</b>

वह क्रांति-दृष्टि -
जिससे हारा था देवराज का अहंकार
थी अनुपमेय |
हम सब आस्था के अंतरीप पर उतरे थे -
सूर्योदय उस दिन हुआ नये युग का था |
वह सूर्योदय की बेला शाश्वत है, कान्हा !
तुम नई सृष्टि के हो सृष्टा, सच में, अनन्य |

जागो कनु , जागो मूर्च्छा से !
तुमने ही तो है दिया मुझे यह वंशीरव,
हाँ, जीवन का संगीत सनातन ब्रह्मनाद |
मैं संग तुम्हारे -
पीड़ाएँ मुझको दे दो |
तुम मुक्त-हृदय ...
सागर से उमड़ो सभी ओर |
तुमने था कहा -
'नहीं तट हम...
हम मुक्त सिन्धु
जिस पर लहरें तो दिखती हैं
पर स्वयं शांत-स्थिर रहकर
बनता है आधार विश्व की क्रीड़ा का' |


यह सागर-सा मन तुम्हें मिला
इसको मत बाँधो, सुनो सखे !

यह यादव-कुल है थका-हुआ
सिकुड़ा-सिमटा
उद्वेलित है
इसको विस्तार सिन्धु का दो |
हाँ, मेरे कनु !
मैं हूँ सदैव ही साथ-साथ
तुम धीर धरो !

<b>[राधा का स्वर दूब जाता है | कृष्ण राधा को संबोधित करते हैं - मानो स्वयं से ही बोल रहे हों]</b>

<b>कृष्ण -</b> राधन ! मेरी चिरसखी !
यह कैसी मूर्च्छा थी मेरी |
मैं कैसे भूल गया यह सच
तुम मेरी नित्य-संगिनी हो -
नेरी आस्था - मेरी ऊर्जा !
मेरे अवतारी जीवन की
तुम हो विलास ...
तुम ही माया - तुम ही लीला |
मिल गयी दृष्टि - मिल गया मार्ग -
ये यादव होंगे अब सागर सीमाविहीन |

<b>[तभी अंधकार में पहाड़ी के नीचे से बलराम और उद्धव की चिंतातुर पुकार सुनाई देती है | कृष्ण का आत्मालाप उस गुहार से टूटता है]</b>

<b>कृष्ण -</b> दाऊ- उद्धव !
मैं यहाँ पहाड़ी पर बैठा हूँ - इधर आओ |
... ... ...
दाऊ, स्वागत !
उद्धव, कैसे हो भाई तुम ?

मिल गया हमें उत्तर अपनी सीमाओं का |
दानवी शक्तियों ने मथुरा को घेरा है -
आ रहा पूर्व से जरासंध
दक्षिण से कालयवन दानव -
उत्तर में कौरव महाराज्य |
बस पश्चिम है
जिस और हमारी गति केवल |

सागर-तट पर यादव-कुल की शाखाएँ हैं
नगरी कुशस्थली के खण्डहर -अवशेष वहाँ
हम उसे बसायेंगे फिर से |
सागर रक्षक होगा अपना -
मथुरा से सिर्फ पलायन ही है श्रेयस्कर |

उद्धव, तुम अभी प्रयाण करो |
मरुथल विशाल
जो पड़ा राह में सागर तक
उसमें से मार्ग-दिशाओं का संधान करो |
ले जाओ सँग तुम ऊँट-रथी
जो कुशल मार्ग के खोजक हों |
अगले पखवारे इसी समय
प्रस्थान करेंगे मथुरावासी नर-नारी
आबाल-वृद्ध |

हम दोनों भाई यहीं रहेंगे मथुरा में
तब तक ... जब तक...

<b>[उद्धव की आकृति में कृष्ण शंकालु 'किन्तु-परन्तु' और दुश्चिंता का भाव पढ़ लेते हैं और क्ष्नार्द्ध के बाद फिर बोलते हैं]</b>

यह समय नही है
किन्तु-परन्तु सोचने का |
जाओ, उद्धव, जो कहता हूँ वह करो शीघ्र |
निश्चिन्त रहो -
हम दोनों भाई हैं समर्थ
उलझाने में आक्रान्ताओं को |
दाऊ का हल-मूसल तो पूरी सेना है |
फिर मथुरा का यह दुर्ग हमारा रक्षक है |

इस कालयवन के लक्ष्य सभी यदुवंशी हैं -
जाओ, उद्धव, शीघ्रता करो |

<b>[कृष्ण का स्वर धीमा हो जाता है - दृश्य भी धुंधला जाता है | कथावाचन का स्वर फिर उठता है]</b>

<b>कथा वाचन</b> - यह है प्रसंग
अद्भुत कौशल-चतुराई का
कष्टों का भी |
आबाल-वृद्ध, नर-नारी सब मथुरावासी
कर गये पार उस मरुथल को
जो था अलंघ्य |
मथुरा के संकट
विकट मरुस्थल की यात्रा वे भूल गये
सागर-तट पर विस्तार हुआ उनका अदम्य |

हो गया पराजित जरासंध फिर एक बार |
मुचकुंद-गुफा में कालयवन भी नष्ट हुआ |

मथुरा नगरी उजड़ी
लेकिन
दुर्धर्ष यादवों ने निर्मित की नई पुरी -
सागर को बेला बाँध बनी द्वारका पुरी -
अप्रतिम नगरी |

यादव-कुल का विस्तार हुआ
सत्ता उनकी हो गयी प्रबल -
समृद्धि मिली -दुर्दम्य हुए
फिर उद्धत भी |

पर कृष्ण रहे हैं वही
सहज अपने सबके -
यादव-सत्ता के केंद्र-बिंदु
फिर भी उससे ऊपर - तटस्थ |
सृष्टा-निर्माता बने रहे
भोक्ता वे हुए नहीं सत्ता-सुविधाओं के |


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