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{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
बैठ कर जो भी सुने बात ज़ुबानी उसकी
हर किसी को ही लगे अपनी, कहानी उसकी
जाने क्या जादू किया उसने भरे गुलशन पर
अब हवा भी लिये फिरती है निशानी उसकी
परबतों से जो गले लग के हँसा इक बादल
बूढ़े दरिया को मिली फिर से जवानी उसकी
घर ये सारा ही महक उट्ठे है ख़ुश्बू-ख़ुश्बू
जब भी चिट्ठी मैं पढ़ूँ कोई पुरानी उसकी
लड़खड़ाती थी ज़ुबाँ, बात है ये कल की ही
आज हैरान हैं सब सुन के बयानी उसकी
झीने से लगने लगे घर के उसे सब पर्दे
बेटियाँ होने लगीं जब से सयानी उसकी
इक नया गीत रचे राह का हर ज़र्रा फिर
जब चले साथ में वो और दिवानी उसकी
(लफ़्ज़ सितम्बर-नवम्बर 2011, जनपथ दिसम्बर 2013)
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|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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बैठ कर जो भी सुने बात ज़ुबानी उसकी
हर किसी को ही लगे अपनी, कहानी उसकी
जाने क्या जादू किया उसने भरे गुलशन पर
अब हवा भी लिये फिरती है निशानी उसकी
परबतों से जो गले लग के हँसा इक बादल
बूढ़े दरिया को मिली फिर से जवानी उसकी
घर ये सारा ही महक उट्ठे है ख़ुश्बू-ख़ुश्बू
जब भी चिट्ठी मैं पढ़ूँ कोई पुरानी उसकी
लड़खड़ाती थी ज़ुबाँ, बात है ये कल की ही
आज हैरान हैं सब सुन के बयानी उसकी
झीने से लगने लगे घर के उसे सब पर्दे
बेटियाँ होने लगीं जब से सयानी उसकी
इक नया गीत रचे राह का हर ज़र्रा फिर
जब चले साथ में वो और दिवानी उसकी
(लफ़्ज़ सितम्बर-नवम्बर 2011, जनपथ दिसम्बर 2013)