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वो दिन / मनोज चौहान

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<poem>आरक्षण भाई
उसे तुमसे कोई वैर नहीं है
मगर मन मसोस कर
रह जाता है वह
जब तुम
साथ नहीं दे पाते
उस होनहार युवा का l

वह अभावग्रस्त है
और जरुरतमंद भी
मगर हो जाता है बाहर
तय मानदंडो से
मात्र इसीलिए
क्योंकि
पार कर चुका है वह
उम्र का एक पड़ाव
नहीं कर सकता आवेदन
उस नौकरी के लिए
जिसकी उसे नितांत जरुरत है l

तुम्हारे आरम्भ का स्मरण
हो चलता है फिर उसे
ईजाद हुए थे तुम
आजादी के बाद
महज एक दशक के लिए ही
ताकि तुम पाट सको खाई
असमानता की l

विकास की
मुख्यधारा से जोड़ सको
पीछे रह चुके लोगों को
कितने ही दशक बीत चुके
मगर तुम आज भी चलायमान हो
पा चुके हो जीवनदान
अनेको बार l

असमानता की जिस खाई को
पाटना था तुम्हे
वो तो और भी
गहराती जा रही है l

गरीबी नहीं आती है
कुल,समुदाय या मजहब देखकर
फिर क्यूँ तुम्हें बाँट दिया गया है
कुछ चुनिन्दा विशिष्ट जनों में ही
रेवड़ियों की तरह l

सही मायनो में
अगर संबल बनना
चाहते हो समाज का
तो आर्थिक आधार पर
ही तुम्हे लागू करना लाजमी होगा l

पैमाना बदल जायेगा
मगर निष्पक्ष होकर तुम
साथ दे पाओगे
हर जरूरतमंद का
चाहे वह सम्बन्ध रखता हो
किसी भी कुल
जाति या धर्म से

</poem>