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सवारी / प्रेमघन

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|संग्रह=जीर्ण जनपद / बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'
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<poem>
याही मग जब सरदारन की कढ़त सवारी।
सो निरखी छवि अजहुँ न मन सों जाय बिसारी॥१२०॥

नहिं नैमित्तिक वरुक नित्य की बात बतावत।
कोउ कारज बस जबै कोऊ कहुँ जात जवावत॥१२१॥

छाय जात लालरी चहूँ चौंधी दै लोचन।
लाल बनाती उरदी धारे परिकर जन सन॥१२२॥

चपल पालकी के कहाँर, सरवान महाउत।
त्यों मसालची खिदमतगार अनेकन संयुत॥१२३॥

आवश्यक उपकरन लिये असि बगल झुलावत।
कोउ कर पीकदान कोउ के छतुरी छवि छाजत॥१२४॥

कोउ पंखा लीने कोउ चंवरी चलत चलावहि।
जो प्रधान उनमें खवास वह पान खवावहिं॥१२५॥

लाल मखमली रुचिर पान को झोरा धारे।
जासों जुरी जंजीर रजत बहु लर गर डारे॥१२६॥

उर पैं एक ओर झोरा वह, अन्य छोर पर।
झब्बा से बहु छोटे बटुये झूलत सुन्दर॥१२७॥

विविध रंग के, चाँदी की घुंडिन सों सोहे।
पान मसाले विविध भरे रेसम सों पोहे॥१२८॥

लिये खास हथियार कटार कमर मैं खोंसे।
भरे तमंचे आदि खरीदे बहु दामों से॥१२९॥

अलबेली अवली अरदली सिपाहिन केरी।
आगे आगे चलत लोग हहरत हिय हेरी॥१३०॥

राजकुमारी पाग लसत सिर जिनके बाँकी।
लाल बनाती खोली सों तैसेही ढाँकी॥१३१॥

एक कांध पै तोड़ेदार तुपक धरि सोहत।
दूजे पैं साबरी परतला परि मन मोहत॥१३२॥

जामैं झूलत बगल बंक चरतार कँटीली।
त्यों गैंडे की ढाल पीठ फुलियन सों खीली॥१३३॥

लाल अंगरखन पै कारी वह यों छवि पाती।
गुल अनार पर परी मधुकरी ज्यों मन भाती॥१३४॥

कमर बँध्यो पटका पर पेटी कसी साज की।
जा मैं रहत सबै सामग्री तुपक बाज की॥१३५॥

रंजक दानी, सिंगरा, तूलि, पलीता दानी।
तोस दान, चकमक, पथरी गोलीन भरानी॥१३६॥

बीछी आर सरिस टेई मूँछैं सबही की।
दाढ़ी ऐंठी, उठी असित अहिफ़न सम नीकी॥१३७॥

दीरघ तन परि पुष्ट सबै बल सों ऐड़ाते।
भरि उछाह सों उछरत चलैं दर्प दिखराते॥१३८॥

खटकनि ढालन की अरु झनकन तरवारन की।
चलनि बीरगति गहे, करत रव हुंकारन की॥१३९॥

सहज सवारी साजत वै जो परत लखाई।
मनहुँ चढ़त सामन्त कोऊ रन करन लराई॥१४०॥

ब्याह बरातहुँ मैं न आज वह कहूँ देखियत।
पलटि गयो वह समय हाय सब साजहिं बदलत॥१४१॥

आज तिनहिं के पुत्र भतीजे हम सब इत उत।
घूमत फिरत अकेले वेष बनाये अद् भुत॥१४२॥



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