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{{KKRachna
|रचनाकार=विजयदान देथा 'बिज्जी'
|अनुवादक=
|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्जी'
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
ऊषे!
किसका सन्देशा लाई हो
चिर प्रकाश या चिर अन्धकार का?
अरुणिम वेला में आकर अम्बर पर
बनकर प्रकाश की पथचरी
चिर अनुचरी!
उसके आने का सन्देशा देकर
फिर पथ से हट जाती हो!
अधरों पर लेकर मुस्कान
मन्द-मन्द मन्थर गति से
जगमग-जगमग ज्योति पुंज से
कर ज्योतिर्मय जग-संसार
वह दिग्विजयी नृप-सा
करता है शासन
समूची धरती पर!
तुम गोधिूलि वेला में फिर
प्राची के नभ पर आकर
बन अन्धकार की चिर अनुगामिनी
तारक दीपों से पथ आलोकित कर
उसके आने का लाती हो आमन्त्रण!
तब आता है वह
लेकर अपना विकराल रूप
जग के हर कण-कण पर
क्रुर-सा बन
करता है शासन!
तुम मेरे भी मानस पर छाई हो
पर लाई हो सन्देशा किसका?
कुछ तो नीरव स्वर में कहकर
अब कर दो इतना इंगित भर
किसकी अनुचरी बनकर आई हो?
ऊषे!
किसका सन्देशा लाई हो
चिर प्रकाश या चिर अन्धकार का?
</poem>
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|संग्रह=ऊषा / विजयदान देथा 'बिज्जी'
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<poem>
ऊषे!
किसका सन्देशा लाई हो
चिर प्रकाश या चिर अन्धकार का?
अरुणिम वेला में आकर अम्बर पर
बनकर प्रकाश की पथचरी
चिर अनुचरी!
उसके आने का सन्देशा देकर
फिर पथ से हट जाती हो!
अधरों पर लेकर मुस्कान
मन्द-मन्द मन्थर गति से
जगमग-जगमग ज्योति पुंज से
कर ज्योतिर्मय जग-संसार
वह दिग्विजयी नृप-सा
करता है शासन
समूची धरती पर!
तुम गोधिूलि वेला में फिर
प्राची के नभ पर आकर
बन अन्धकार की चिर अनुगामिनी
तारक दीपों से पथ आलोकित कर
उसके आने का लाती हो आमन्त्रण!
तब आता है वह
लेकर अपना विकराल रूप
जग के हर कण-कण पर
क्रुर-सा बन
करता है शासन!
तुम मेरे भी मानस पर छाई हो
पर लाई हो सन्देशा किसका?
कुछ तो नीरव स्वर में कहकर
अब कर दो इतना इंगित भर
किसकी अनुचरी बनकर आई हो?
ऊषे!
किसका सन्देशा लाई हो
चिर प्रकाश या चिर अन्धकार का?
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