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''राजस्थानी भाषा के जाने-माने साहित्यकार [[मालचंद तिवाड़ी|श्री मालचंद तिवाड़ी]] ने [[विजयदान देथा 'बिज्जी'|बिज्जी]] के बारे में कुछ संस्मरण कविता कोश के साथ साझा किए:''
[[विजयदान देथा 'बिज्जीबिज्जी']] का जन्म 1 सितम्बर, 1926 को हुआ था। उनके इकलौते काव्य-संकलन 'ऊषा' का प्रकाशन उनकी तीस वर्ष की आयु में ईस्वी सन् 1949 में हुआ। बिज्जी इस अवधि में जसवन्त कॉलेज, जोधपुर में एम. ए. के विद्यार्थी थे। उनका यह एम. ए. अधूरा ही रहा, मगर इस दौरान उन्होंने शरारतों का एक ऐसा विशद् अध्याय पूरा रचा जिसका एक विलक्षण सर्जनात्मक पृष्ठ उनके 'ऊषा' काव्य-संकलन को कहा जा सकता है। लेकिन 'ऊषा' की कहानी बतलाने से पहले उनके शरारतों के अध्याय के एकाध और अद्भुत पृष्ठ पर नजर दौड़ा लेना भी बुरा न होगा।
एक बार उनके कॉलेज के किसी कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध सर्वोदयी सन्त विनोबा भावे आए थे। विनोबा ने छात्र-छात्राओं की एक सभा को सम्बोधित किया। इसके पश्चात शंका-समाधान की दृष्टि से एक प्रश्नोत्तर सत्र भी रखा गया। बिज्जी अपनी शरारत का पूरा कथानक ठीक अपनी किसी कहानी की तरह पहले से बुनकर पहुँचे थे। सबसे पहले उनका एक तैयारशुदा साथी बोला, "एक लघुशंका मेरी भी है! " सभा में ठहाका गूंजा और इसके शांत होने से पेशतर बिज्जी उठ खड़े हुए, "एक दीर्घशंका मेरी भी! "