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|रचनाकार=नरेन्द्र देव वर्मा
|संग्रह=
}}
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<poem>
जिगर में घाव हैं सौ सौ, बताएँ तो बताएँ क्यों।
उगे हैं गम फफोलों से, दिखाएँ तो दिखाएँ क्यों।
उठी थी आँख जब उनकी तो दिल यह बैठ जाता था,
नजर की तेज है तासीर फिर नजरें मिलाएँ क्यों।
खिले थे फूल कुछ दिन में जो सुनके बोल कुछ उनके,
तो खुशबू खुद ही लेते हैं, किसी को यह सुँघाएँ क्यों।
दवा क्या है मरीजे-इश्क का दीदार ही खाली
मगर कमजोर दिल अपना हिमाकत फिर जताएँ क्यों।
हमारी आँख का पानी बहाना उनको लगता है,
फिर हम जुस्तजू करके मनाएँ तो मनाएँ क्यों।
हमारी जान जाएगी मजा कुछ उनको आएगा,
ये गुन के हम पड़े कब से वो मौत आए तो आए क्यों।
मुहब्बत की जगह तो जिन्दगी में सिर्फ कुछ लम्हें,
वो लम्हा खुद ब खुद आएगा खुद होकर बुलाएँ क्यों।
यहाँ के लोग तो जैसे बने है अजनबी खुदे से,
ये हालत देखकर भी दिल लगाएँ तो लगाएँ क्यों।
बड़ी गमगीन बस्ती है अंधेरा ही अंधेरा है,
बुझा जो दीप मुद्दत से उसे फिर से जलाएँ क्यों।
</poem>
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|रचनाकार=नरेन्द्र देव वर्मा
|संग्रह=
}}
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जिगर में घाव हैं सौ सौ, बताएँ तो बताएँ क्यों।
उगे हैं गम फफोलों से, दिखाएँ तो दिखाएँ क्यों।
उठी थी आँख जब उनकी तो दिल यह बैठ जाता था,
नजर की तेज है तासीर फिर नजरें मिलाएँ क्यों।
खिले थे फूल कुछ दिन में जो सुनके बोल कुछ उनके,
तो खुशबू खुद ही लेते हैं, किसी को यह सुँघाएँ क्यों।
दवा क्या है मरीजे-इश्क का दीदार ही खाली
मगर कमजोर दिल अपना हिमाकत फिर जताएँ क्यों।
हमारी आँख का पानी बहाना उनको लगता है,
फिर हम जुस्तजू करके मनाएँ तो मनाएँ क्यों।
हमारी जान जाएगी मजा कुछ उनको आएगा,
ये गुन के हम पड़े कब से वो मौत आए तो आए क्यों।
मुहब्बत की जगह तो जिन्दगी में सिर्फ कुछ लम्हें,
वो लम्हा खुद ब खुद आएगा खुद होकर बुलाएँ क्यों।
यहाँ के लोग तो जैसे बने है अजनबी खुदे से,
ये हालत देखकर भी दिल लगाएँ तो लगाएँ क्यों।
बड़ी गमगीन बस्ती है अंधेरा ही अंधेरा है,
बुझा जो दीप मुद्दत से उसे फिर से जलाएँ क्यों।
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