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उझरे घर कुरिया / चेतन भारती

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<poem>
चलव अब ते सम्हलन,
महतारी के कर्जा चुकाना हे ।
अपन बांह के करके भरोसा,
नवा जिन्गी के जोत जलाना हे ।।

स्वारथ में आँखी मुंदे हम,
परमारथ ल घला चबा डारेन ।
अपनेच ल बड़का कहाए खातिर,
अपन धरम के घेंघा दबा डारेन ।।
चल तो देखव बढ़के आगू,
उझरे धर धुंधिया अपन सजाना हे ।
चलव अब तो ....

महतारी के दुनों हाथ म,
आगी लगादीन दोखहा मन ।
दसो अंगुरिया के परे फोरा म,
नुन लगादीन चोरहा मन ।।
चारो कोती अबड़ अति मचे हे,
जरत अपन घर बचाना हे ।
चलव अब तो....

अंधियारी अंजोरी के मिलवट म,
घिघियावत हावे मानुखपन ।
मुक्का बनके सब देखत हावें,
चिचियावत हावे दर्रे किसाने मन ।।
ठानव मानव अब तो जानव,
भारत महतारी के मान बढ़ाना हे ।।
चलव अब तो ....
</poem>
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