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आग लगी थी / डी. एम. मिश्र

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आग लगी थी
जहाँ सामने खड़े
हज़ारों हाथ बुझाने वाले थे
बड़े- बड़े शब्दों में सब
तरकीब बताने वाले थे
आग लगी थी
जहाँ भीड़ में
चेहरे आधे बुझे हुए थे
आधे घोर हताशा में थे
नल से पानी कौन भरे
सब दमकल की आशा में थे
 
आग लगी थी
बीच सड़क पर
जैसे कोई लाश तमाशे में लावारिस
चुप थे लोग चिनगियाँ
चट -चट बोल रही थीं
सारा धुँआ उस तरफ है
इधर एक ख़ामोश चिता
शापित माँ और वृद्ध पिता
 
आग लगी थी
जंगल में सब धुआँ-धुआँ
काले मुँह वालों को देखो
बढ़ -चढ़ करके शीश उठाये
नंगों की नगरी में
सारे पर समझौता
कौन लजाये
 
आग लगी थी
बाज़ारों में रौनक थी
कोई गुम था
कोई गुमसुम
मगर मुखौटे
नकली चेहरे
अपनी जगह सुरक्षित थे
उन पर कोई आँच न आयी
 
बड़ी बात जो ऊँचे स्वर में
सबसे आगे बोल रहे थे
बने महाजन
डाँड़ीमार
आधुनिक तुला पर
तौल रहे थे
 
आग लगी थी
जैसे कोई शहर
जेठ की दोपहरी में
बिना चिरागी़
गाँव की तरह
सुलग रहा था
तेज धूप में
बोल रहा था
बिसरे लेागेा बचो
आग की बारिश में
क्या अन्दर-क्या बाहर
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