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<poem>
काँटे भी हैं वहीं, वहीं खिलता गुलाब है
क्या उन की शफ़क़तों का भी कोई हिसाब है।

रब ने दिया हुज़ूर के जरिये जहान को
कुऱ्आन से बडी भी क्या कोई किताब है।

वही रसूले हक़, वही रब के हबीब हैं
क्या उनकी अज़मतों का भी कोई जवाब है।

बहका नहीं हूँ पी के मैं आया हूँ होश में
महशर में उनके हाथ मिली जो शराब है।

इन्सान क्या फ़रिश्ते भी करते हैं उन पे फ़ख्र
रब का हमारे कितना हसीं इन्तख़ाब है।

दर पे मैं आके आपके पढता हॅू नाते पाक
अब इससे तो हसीन नहीं कोई ख्वााब है।
</poem>
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