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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
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}}
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<poem>
जिस-जिस से प्यार किया मैंने, सब बिछुड़ गये
अब नयन मिलाते भी मुझको डर लगता है।
वे बचपन के साथी जिनको था अपनाया
वे खेल- खिलौने जिन से यौवन तक आया,
वे ठौर जहाँ एकान्त क्षणों में मिलते थे
मधु-पुष्प अधर पर गीत प्रेम के लिखते थे,
था व्यस्त कभी बचपन मेरा
था मस्त कभी यौवन मेरा
जिस-जिस का परस किया मैंने सब रूठ गये
अब बाँह बढ़ाते भी मुझको डर लगता है।
मीठी -मीठी बातों की मार सही इतनी
अंतर से ले मन-आँगन तक छलनी-छलनी,
जिस-जिस चौखट पर जाकर शीश झुकाया है
माँगा मैंने कुछ भी पीड़ा ही पाया है,
जो आता प्याले छलकाता
बस केवल मुझको तरसाता
जिस-जिस मधु-घट पर लपका मैं सब विष निकले
अब अधर डुलाते भी मुझको डर लगता है।
मैं चाह रहा था पाषाणों में दिल भरना
मैं चाह रहा था हर दिल की धड़कन बनना,
पर, किसने इन अरमानों का सत्कार किया
किसने मुझसे अपनों जैसा व्यवहार किया,
जो आता अदा दिखा जाता
मैं कोई गीत बनना जाता
जिस-जिस पर गीत लिखा मैंने सब गैर हुए
अब गीत बनाते भी मुझको डर लगता है।
</poem>
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जिस-जिस से प्यार किया मैंने, सब बिछुड़ गये
अब नयन मिलाते भी मुझको डर लगता है।
वे बचपन के साथी जिनको था अपनाया
वे खेल- खिलौने जिन से यौवन तक आया,
वे ठौर जहाँ एकान्त क्षणों में मिलते थे
मधु-पुष्प अधर पर गीत प्रेम के लिखते थे,
था व्यस्त कभी बचपन मेरा
था मस्त कभी यौवन मेरा
जिस-जिस का परस किया मैंने सब रूठ गये
अब बाँह बढ़ाते भी मुझको डर लगता है।
मीठी -मीठी बातों की मार सही इतनी
अंतर से ले मन-आँगन तक छलनी-छलनी,
जिस-जिस चौखट पर जाकर शीश झुकाया है
माँगा मैंने कुछ भी पीड़ा ही पाया है,
जो आता प्याले छलकाता
बस केवल मुझको तरसाता
जिस-जिस मधु-घट पर लपका मैं सब विष निकले
अब अधर डुलाते भी मुझको डर लगता है।
मैं चाह रहा था पाषाणों में दिल भरना
मैं चाह रहा था हर दिल की धड़कन बनना,
पर, किसने इन अरमानों का सत्कार किया
किसने मुझसे अपनों जैसा व्यवहार किया,
जो आता अदा दिखा जाता
मैं कोई गीत बनना जाता
जिस-जिस पर गीत लिखा मैंने सब गैर हुए
अब गीत बनाते भी मुझको डर लगता है।
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