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Kavita Kosh से
माथे पे पिठाली से ही टिकुली बनाया चाँद
नभ का ही कल्पद्रुम आँखों के आगे में जैसे
और जिसमें लगा हो फूल-सा फुलाया चाँद नीले-नीले नभ का ही सागर मथाने से ही
बाहर हठात् ही ज्यों भीतर से आया चाँद
नीचे छुप गई है क्या बाँहों से छुटी-सी प्रिया