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|रचनाकार=सुरेन्द्र डी सोनी
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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
मिंदर, देवरा, बरत, उजमणां

जाणैं कांईं-काईं
रचै-बसै
प्यारी थारै हिरदै मैं-

भोत ठीक
कै थूं
जकी नै म्हैं बावळी कैवूं
म्हारी अकल री
आं अबखायां नैं
सजा‘र पूजा रै थाल मैं
ईं घर नैं
राखै भरयो-पूरो
थांरो ओ ई रूप
म्हनैं
नित नवीं अबखायां नैं
ओढ़‘र चालण जोगो राखै
अर बुद्धिजीवियां री भीड़ मैं
न्यारो दीखणैं रा
सांगोपांग ओसर देवै
पण थूं
पूजा रो थाळ लियां
सदा ई
मिनखां बीच मिनखां जिसी
अर म्हैं
लियां अबखायां री पोटळी
करतो खंडण-मंडण
दूजां री बातं रा
अर
म्हारी जाण मैं
तोड़तो समाज रा जेवड़ा
न्यारो हो‘र भी
न्यारो नीं लागूं।

</poem>
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