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|रचनाकार=सतीश गोल्याण
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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
अेक दिन सोचतां-सोचतां
सोचण लाग्यो,
बास री सगळी लुगायां
चावै बा काकी लागै
चावै बा ताई लगै, दादी लागै
बां‘रो कांई नांव है ?
आ, जाणन आरी कदै सोई ई कोनी!
परथावो हुंवता ईं बां‘री
कीं‘रै न कीं‘रै साथ जुड़गी
सगळा सूं पैलां बा हुई
ख्याली री बीनणी
बीं सूं पाछै बा बणी
सुरजै री घरआळी
अर छैकड़ बा बणी
बा ईंया ई बिना नांव रै
सुरगां सिधारगी
पण अजताणी बास में
बीं‘रो नांव, कुण ई नीं जाणै।
</poem>
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