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उबरेळो / मनोज देपावत

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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
हूं कदै ई नीं चाऊं
दरद सूं ऊबरैळो
पण म्हारा प्रभु
था सूं बिणती है
कै दरद दैवै तो ईंया दे
जाणैं मुसळाधार में
जा सूं म्हारै हिरदै रै
बियाबान में बाढ आ ज्यावै
जिण में वै डूब ज्यावै
सारी अतिपरत इच्छावां
इयां नीं कै जाणैं मिमझर
जको टिप-टिप बरसतो रैवै,
जा सूं म्हारै अंतस रै आंगणै में,
चबौल्यां पड़ जावै
अर जिण में भरयोड़ो दरद
सारी उमर टीसां मारतो रवै।

</poem>
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