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म्हैं अर बै / मनोज देपावत

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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
आज जद म्हैं
म्हारै अर बारै
कामां री तुलना करी
जद देख्यो
कै सांचण बताणों.... म्हारो काम!
सुपणा दिखाणों ... बांरो काम!
मंजिल पाणों.... म्हारो काम!
रसता भटकाणों.... बांरो काम!
मन समझाणों... म्हारो काम!
चित्त बेकाणों....बांरो काम!
नीर पियाणों....म्हारो काम!
प्यास भड़काणों...बांरो काम!
दवा दिराणों...म्हारो काम!
दरद बढाणों...बांरो काम!
मरता जियाणों...म्हारो काम!
बैमोत मराणों....बांरो काम!
सुलह कराणों...म्हारो काम!
सिर फुडाणोें....बांरो काम!
बात दबाणों...म्हारो काम!
रोळो मचाणों....बांरो काम!
ओ देख अर म्हनै लाग्यो
बै बूढिया झूठ कैवै
कै छोरो, ऊंधा काम थे ही थे करो।

</poem>
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