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<poem>आँगन के बीचों बीच<br> सफ़ेद बुर्राक कपड़ों में<br> लेटी है माँ ।<br>माँ।माँ जिसकी बातें<br> भोर की हवा<br> कुदकती अमराइयों में<br> बौर को सहलाती गुनगुनाती ।<br>गुनगुनाती।माँ ; जिसका स्पर्श<br> परियों की कथा सुनते बच्चे<br> अपने उलझे बालों में<br> महसूसते, <br> जिद्दी बच्चों की रुलाई<br> हथेलियों में डूब जाती<br> और फूट पड़ती<br> माँ जिसकी आँखों में था<br> सातों समंदर का पानी <br> सारे समंदर <br> तैरकर पार किए थे माँ ने<br> थकान को निगलते हुए ।<br>हुए।माँ- जिसके जीवन का<br> कोई किनारा नहीं था<br> था सिर्फ़ सीमाहीन अंधकार<br> माँ थीं<br> बहुत दूर टिमटिमाती रोशनी<br> वही रोशनी नहा- धोकर<br> लेटी है आँगन में।<br> और मेरी बड़ी बहिन<br> बुत बनी बैठी है<br> आँखों की चमक गायब है<br> क्षितिज तक फैला है रेगिस्तान<br> न ही किसी काफ़िले का<br> दूर तक नामोनिशान , <br> सोचता हूँ इसकी आँखों के लिए<br> कहाँ से लाऊँ चमक<br> कहाँ से लाऊँ सूरज धुली मुस्कान<br> और मेरी छोटी बहिन<br> उसके सिर का आकाश<br> लेटा है आँगन में<br> उसकी हिचकियाँ उसके आँसू<br> लगता है कायनात को डुबो देंगे<br> उसका ज़र्द चेहरा<br> साक्षात पीड़ा बन गया है<br> कहाँ से लाऊँ मैं आकाश, <br> जिसे उसके सिर पर ढक दूँ<br> कहाँ से लाऊँ वे हथेलियाँ , <br> जो उसके आँसू सोख लें<br> उँगलियाँ उलझे बालों को सुलझा दें<br> जो परियों की कहानी सुनाती माँ बन जाए<br> उसके जर्द चेहरे पर, गुलाब खिला दे ।<br>दे।कहाँ से लाऊँ वह मीठी नज़र ? <br> वह तो लेटी है निश्चिंत होकर आँगन में ।<br>में।मैं<br> भाई से तब्दील हो रहा हूँ<br> अचानक सफ़र पर निकले पिता में<br> आँगन में लेटी माँ में<br> ताकि लौटा सकूँ जो चला गया<br> जो लौटा सकता है आँखों की चमक<br> चेहरों के ओस नहाए गुलाब<br> बड़ी -से -बड़ी कीमत पर ।पर।<br/poem>