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ओ मन / सिया चौधरी

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|संग्रह=थार-सप्तक-4 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
उगमता सुरजी रै
उजास में
आंख्यां चुंधीजै
ओ अंधारो
इत्तो चोखो क्यूं लागै
स्यात इणी में
लुकमीचणी खेलतो
म्हारो सुपनों ई
म्हारै मन रो
च्यानणों है।

पड़तख दीखतो खेत
म्हनै सांचो नीं लागै
सुपनां आळा
सगळा बाग-बगीचा
म्हनै सांचा क्यूं लागै?

आं जाळ-जंजाळां में
म्हारो ओ काचो मन
कठै ई
उळझ तो कोनी गयो ?

</poem>
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