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|संग्रह=थार-सप्तक-7 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
दादो करग्या
आंख्यां साम्हीं सौ बरस
दादै री लोथ
पड़ी है आंगणैं में
घरां मंडग्यो मेळो
लोगड़ा काढै हा
आपरै दांतां रा कटका
दे चरचा पर चरचा
अब करणां पड़सी लाडी खरचा
बां री आंख्यां में
साव दिखै हा तिरता
सीरै-पूड़ी साथै
लाडू-बूंदियां रा सुपना
पण कुण देखै
म्हारी आंख्यां में
मिटता-गळता सुपनां
जिका देख्या हा
म्हे दादै-पौतै।
</poem>
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