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|संग्रह=भोत अंधारो है / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
समूळी सगती
म्हारी आंख्यां साम्हीं
सांवट' र चढ बैठ्यो
म्हारी छाती
हाथां दिया धमीड़
जीमतै री थाळी खोस
खायग्या म्हारी पांती
बरज्यो बकार्यो तो
हाका कर्या
म्हारी बुसक्यां देख
परचावण ढूक्या
आ बगत री मार है
समो भोत बळवान है
इण रै आगै
बिसात काईं मिनख री।

म्हैं मनां ओ सोचूं
उथळूं घट में
सिरकै क्यूं नीं
जे सिरकै नीं तो
सगत रै हाथ
क्यूं है बगत?
</poem>
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