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|रचनाकार=ओम पुरोहित ‘कागद’
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|संग्रह=भोत अंधारो है / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
समूळै माथै
कुंडाळो मार'र बैठ्या
आप बिलमाऔ जग नै
हाथां खैरातां बांट-बांट
जाणैं लागो-देगो
आपरो इज है समूळो
आप भरमीज्योड़ा हो मालकां
जग नै जे कदैई
कीं मिलै आपरै हाथां
तो लागो चावै नीं हुवै आपरो
देगो पण आपरो इज गिणीजै
ओ चावो भी हो आप!
सगळी हींग-फिटकड़ी
आप रै हाथां लियां बैठ्या
आप भोत चतर हो मालकां
जद चाओ हींग रळाओ
अर जद चाओ फिटकड़ी
रंग पण चढै
आपरै दाय आवै ज्यूंई
जद कदैई आप नै टाळ
जे परबारा पळकै रंग
तो रंग में भंग घालणों
आप खूब जाणों मालकां!
आपरी चींती पूरण
दूर सूं ई दागो आप गोळ्यां
पिराण लेवो आप
पण हाथ अर हथियार
कदैई आपरा नीं हुवै
फगत भेजो इज हुवै
इण मनोरथ सारू आप
खांधा अर गोळ्यां
सोधता ई रैवो दूजां रा
आपरै ओळैदोळै
मीठै री लालची माख्यां दाईं
भंवता रैवै बिन्या नस-नाड़ रा खांधा
आप उणीज में मोदीजता रैवो
लागो टाळ देगो झालता!
चेतो मालकां, चेतो!
लागो भोगणियां
आज मून जरूर है
काल पण आवैला
आपरै लागै री कूंची
थांरी अंटी सूं झपटण
उण बगत आप
घणोंई कैवोला
म्हांरो कोई लागो-देगो नीं है
ध्यान पण राख्या मालकां
उण बगत उणां रै
कान नीं हुवैला
हुवैला फगत हाथ!
</poem>
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