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|संग्रह=चीकणा दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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<poem>
ओळूं रै किवाड़ां आडी
अटकायोड़ी है
उडीक री आगळ
जकां नैं ओढाळ्यां पछै
अजै लग नीं खटखटायो किणी
जुगां सूं
मानवी परस सारू तरसै
किवाड़ां रो काठ
घड़्यां पछै जकां नैं
खाती ई बिसरग्यो
आखी उमर छोल'र
सूत-सूत जोख'र
सिरज्योड़ी पंचमेळी जोड़ी
गवाड़ रै बिचाळै थरप्योड़ी
पूतळी रै उनमान
थिर ऊभी है
जिणरै ओळै-दोळै
कोनी दीसै कोई जीव-जिनावर
साव मून
फ गत बायरै री सूं-सांट
भांगै सूनेड़।

आप फगत देख सको आं किवाड़ां नैं
जिणरै कड़्यां-कूंटां माथै
जम्योड़ी है बगत री खंख
चीकणास अर मैल सूं
काळूंठो पड़ग्यो आं रो रंग
खड़को कर्यां किसा
खुल सकैला
जंग लाग्योड़ा बोदा कबजा...

चेतो-
आं किवाड़ां रै पाछळ
इतियास रो बास है।
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