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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
देर से जाना उसे वो आदमी मक्कार है।
कौम के ही बीच में वो कौम का गद्दार है।
जुल्म का मंज़र जो देखा हमने भी ये तय किया,
इस सभा में न्याय पर कोई बहस बेकार है।
हाथ ढीले, पाँव ढीले हाल उसका देखिये,
वो किसी को क्या मदद देगा जो ख़ुद लाचार है।
लोग कुछ घायल पड़े, कुछ हैं कतारों में खड़े,
हर भला इन्सान इस माहौल में बीमार है।
आप अपना कल अगर महफूज़ रखना चाहते
एक छोटी ही सही, पर क्रान्ति की दरकार है।
</poem>
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|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
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देर से जाना उसे वो आदमी मक्कार है।
कौम के ही बीच में वो कौम का गद्दार है।
जुल्म का मंज़र जो देखा हमने भी ये तय किया,
इस सभा में न्याय पर कोई बहस बेकार है।
हाथ ढीले, पाँव ढीले हाल उसका देखिये,
वो किसी को क्या मदद देगा जो ख़ुद लाचार है।
लोग कुछ घायल पड़े, कुछ हैं कतारों में खड़े,
हर भला इन्सान इस माहौल में बीमार है।
आप अपना कल अगर महफूज़ रखना चाहते
एक छोटी ही सही, पर क्रान्ति की दरकार है।
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