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<poem>
हाँ वो चाहती थी बंधना
प्रेम की स्निग्ध डोर से
परंतु तुमनेँ उसकी साँसे बाँध लीं
वो बंधना चाहती थी विश्वास के धागों से
तुमनेँ उसके ख़्वाब बांध लिए
वो चाहती थी तुम संग उड़ना
तुमनेँ पंख बांध लिए
वो चाहती थी बेपरवाह बोलना
तुमनेँ शब्द बांध लिए
वो चाहती थी कवितायेँ करना
तुमनेँ कल्पनायें बांध दी
तुमनेँ देह बांधी
परंतु आत्मायें नही बंधती
इन्ही बंधनो की राख से
किसी फिनिक्स की तरह
वो फिर जन्म लेगी

कि विप्लव अभी बाकी है.
</poem>
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