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<poem>
दो तटों से हैं विभाजित हम
बह रही है एक धारा बीच से
पार इसको तुम न हम कर पाएंगे
हम न तुमसे अब कभी मिल पाएंगे

साथ इसके ही सदा चलते रहें
आंख भर देखें ज़रा तुमको अभी
वक्त देगा एक धुंधली सी परत
और तुमको देख तक ना पाएंगे
हम न तुमसे अब कभी मिल पाएंगे

कान टेरेंगे मधुर पद चाप को
दिन ब दिन हो जायेगी आवाज कम
तुम धुंधलके में कहीं खो जाओगे
बस अकेले में तुम्हारा नाम ले
आह भरते हम यहीं रह जायेंगे
हम न तुमसे अब कभी मिल पाएंगे

जब कभी पुरवाईयों के साथ में
नाम उड़ करके तुम्हारा आयेगा
मूंद करके नेत्र अपने जोर से
बस तुम्हारी याद में खो जायेंगे
हम न तुमसे अब कभी मिल पायेंगे

वेदना से जब तड़प कर बिजलियाँ
आँक देंगी छवि तुम्हारी क्षितिज पर
कृष्णवर्णी बादलों की छांव में
हाथ मलते हम यहीं रह जायेंगे
हम न तुमसे अब कभी मिल पाएंगे

रात की तन्हाईयों में जब कभी
पवन देगा द्वार मेरे थपकियाँ
नींद चल देगी तुम्हारे द्वार को
स्वप्न तक को हम तरस रह जायेंगे
हम न तुमसे अब कभी मिल पाएंगे

(रचना काल :: जून १९७६)
</poem>
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