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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
कलम उठती नहीं.
मर गए भाव सब.
विष सारा बुझ गया
बार बार उफन कर.
राख के ढेर से
हम रहे धरे.
बदबू भरी हवायें
शाम को फिर आयेंगी.
बिखेर देंगी हमें,
कीचड़ से बजबजाती राहों पर,
सीलन से भरी कोठरियों में.
पथराई, राख सी बुझी आँखें
इस उड़ती राख को
चुटकियों में समेट लेंगी.
पुड़ियों में बाँध
सुबह बर्तन घिस आयेंगी
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=
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कलम उठती नहीं.
मर गए भाव सब.
विष सारा बुझ गया
बार बार उफन कर.
राख के ढेर से
हम रहे धरे.
बदबू भरी हवायें
शाम को फिर आयेंगी.
बिखेर देंगी हमें,
कीचड़ से बजबजाती राहों पर,
सीलन से भरी कोठरियों में.
पथराई, राख सी बुझी आँखें
इस उड़ती राख को
चुटकियों में समेट लेंगी.
पुड़ियों में बाँध
सुबह बर्तन घिस आयेंगी
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