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गायें / दिनेश श्रीवास्तव

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<poem>
हे महामानव
हे अमृत के पुत्रों,

अवसर मिले तो नचिकेता से पूछना
कि क्यों उसके पिता वाजश्रवा
अपनी बूढी, बाँझ, अंधी, और बीमार गायें
दान कर रहे थे.

फिर पूछना हरिश्चंद से
कि कैसे अजीगर्त हजार गायों के बदले
अपना बेटा शुनःशेप देने को राजी हो गए थे
बलि के लिए !
और फिर राजी हो गए थे
हज़ार गायों के बदले
शुनःशेप की बलि भी देने को,
जिससे कि राजा का बेटा रोहिताश्व जी सके.

फिर पूछना दिलीप से
जिसने नंदिनी को बचाने के लिए
स्वयं को अर्पित कर दिया था,
बेटा पाने के लिए.

कभी पूछ लेना विश्वमित्र से
कि कैसे हारे थे एक गाय के हाथों.

फिर पूछना कृष्ण से
कि कैसे वे गायों के पीछे पीछे वन वन भटके
उन्हें बांसुरी सुनाई.

पूछना मेरी माँ से
जो सारी जिंदगी
पहली रोटी गाय को देती रही,

पूछना मेरी बुआ से
जो बिदाई के समय
सबसे ज्यादा गाय से लिपट कर रोयीं थीं.

आज अघ्न्या गायें
शुनःशेप की तरह बलि के खम्भे से बँधी
चीत्कार कर रहीं हैं-
मेरी माँ मुझे प्यार नहीं करती
मेरा पिता धन के बदले मुझे बेंच चुका है
मेरा राजा अपना बेटा बचाना चाहता है
और मेरा ईश्वर अपनी तृप्ति-

किस सुन्दर देवता का नाम पुकारूँ
किसे गुहारूँ,
कौन है ऐसा जो मुझे अदिति दे, बुद्धि दे, शक्ति दे
कि मैं अपने पिता को देख सकूँ, माँ को देख सकूँ !

इन्हे गाय न कहो
ये वृन्दावन और काशी की विधवाएं हैं.
ये कामधेनु की पुत्रियां
ये कपिला की बहनें
ये नंदिनी की माताएं
बस दोहन के लिए हैं
बस शोषण के लिए हैं.

</poem>
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