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पिता / राकेश पाठक

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<poem>
रोज सुबह सुबह मेरी चीजें गुम हो जाती है
कभी सिरहाने रखा चश्मा
तो कभी तुम्हारी दी हुई घड़ी
या किंग्सटन का वह पेन
या चाभी का वह गुच्छा
जिसमे तेरे बचपन के खिलौने का बॉक्स अंदर बंद पड़ा है

पहले वो चश्मा ही है जो
सुबह उठते ही सिरहाने ढूंढता हूँ
ताकि उजास के बीच पढ़ लूँ
तुम्हारा भेजा कोई ख़त
या कोई ई-मेल
या एस. एम. एस

पर हर दिन की तरह ही
टल जाता है
अगली उम्मीद पर
या अगले दिन के इंतज़ार में

यह चश्मा भी है न
तेरी मीठी याद से ही तो जुड़ा है

याद है
जब डॉक्टर ने कहा था
चश्मा ले लीजिये अब
तब तपाक से तुमने कहा था
मेरे गुल्लक में बहुत से पैसे है
उसी से चश्मा ख़रीद लो न पापा
बर्थ डे गिफ्ट की तरह
जो देते रहे हो हर साल मुझे !
आज मेरी ओर से ले लो न पापा !!

मुस्कुरा कर तेरे इस भोलेपन पर मर मिटे थे हम
यही तो है तेरी यादों का इडियट बॉक्स
जो अक़्सर जेहन में आते ही कोर गीले हो जाते है मेरे !

पर न जाने क्यों
दूरियों से
अपनों का संवाद भी
कितना दूर होता जा रहा है अब !

जब गए थे
तो रोज ही बात होती थी
पर दूरियों ने शायद पीढ़ियों के बीच
एक लकीर खींच दी हो
व्यस्तताओं की

जानते हो
रोज सुबह सिरहाने और भी कई चीजे गुम हो जाती है मेरे

तुम्हारी दी हुई वह घड़ी
और उधार लिया हुआ या माँगा हुआ वक्त भी
दोनों मुझसे आँख मिचौली करते है रोज
पर मैं हूँ कि वक्त को ही मैंने बाँध रखा है
घड़ी की सुइयों के साथ
यादों के बीच अटकाकर

पर कब तक ??

कोई न कोई घड़ीसाज आकर
बंधे हुए वक्त को फिर से दुरुस्त कर देगा
रह जायेगी तो फिर वही इडियट बॉक्स में जमा तुम्हारी यादों का गुणसूत्र
जिस में निषेचन का न तो कोई भविष्य है
और न ही हम दोनों के इंतज़ार के इंतहा का कोई अंत ही इसमें
टेबल के दराज में फड़फड़ाते पीले लिफाफे पर दर्ज
होस्टल का तेरे अस्थायी पता का हरेक हर्फ़
बेतरह याद है आज भी मुझे
इंतज़ार भी है किसी ख़त का
आ जाये शायद फिर ??

चीजे जरूर गुम हो रही है
और रोज अपनी जगह से
एक परत स्मृतियों का भी उधेड़ दे रही है
पर अगर कुछ गुम नहीं हो रही है तो वो है तेरे अल्हड़पन की यादें
शरारतें और बुना हुआ याद शहर !

जानते हो
तुम्हारी माँ रोज कहती है बदल लो अपनी आदतें
अपने जीने के तरीके
आखिर क्या है जो रोज ढूंढते रहते हो
'अनु' की आलमारी में
जानते हो तेरी सभी चीजे कैसे करीने से लगा रखी है ज्यों की त्यों
जहाँ है वही है आज भी
वह तेरी ड्राइंग की कॉपी
जिसपर स्कूल के टीचर ने कभी एक्सिलेन्ट लिखा था।
वह ट्रैक शूट भी
जिसे पहनकर तुमने कॉलेज में शील्ड जीती थी
शील्ड को रोज ही छूकर तलाशते है तुम्हें
शायद तुम्हें याद नहीं हो
पर जब तुम छोटे थे
मेरी उंगली पकड़ जिद्द पर अड़ जाते थे
गुड़ में पगी गुझिया के लिए
बिना लिए मानते कहाँ थे तुम ?
बारिश हो या धूप
रोज का यह नियम था तेरा
आज भी रोज गुजरता हूँ
हलवाई के उस दुकान के पास से
पर कुछ भी नहीं खरीद पाता
सिवाय आँसू के
जब वापस घर लौटता हूँ
तेरी माँ भी सुना देती है दस बात
ओह !!!

और फ़फ़क पड़ती है वो भी
कुछ कहते हुए
उन्हीं यादों से गुजरते हुए
एक सिलसिला सा है यह रोज का
आलमारियों में भरे है गुब्बारों के पैकेट
और हैप्पी बर्थ डे वाली रंगीन मोमबत्तियाँ भी
अमूल के डब्बे में रखी मॉर्टन टॉफी का
एक्सपायरी डेट कब का निकल चुका है
पर पड़ी है यथावत ही
तह की हुई गुजरी यादों के साथ !

जीवन गुजारना कितना मुश्किल होता है
एक पिता के नाते मैं अब जान पा रहा हूँ
स्मृतियों के ऊँची दीवारों में कैद
आख़िर कब तक जी पायेगा ?
बच्चा होता हुआ तेरा यह बाप !

कभी-कभार ही सही एक ख़त लिख दिया करो
या कोई मेसेज भेजकर ही ढूंढ़ लेना अपने
पापा का मुस्कुराता चेहरा
जो कभी तेरे स्कूल के बाहर
धूप में खड़े हो
हँसता हुआ मिल जाता था
शायद
तब मेरी कोई भी चीज गुम नहीं होगी
कही से, कभी भी !
</poem>
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