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<poem>
वह देखती है अक्सर
अन्धियाले में उजाड़ पार्क के कोने में
इकलौता सिहरता पेड़ वह
जाने क्यूँ अक्सर
लगता है वह उसे
झुण्ड से बिछुड़े मेमने सा

वह नापने लगती है
अपने आप से अपनी बिछुरन की चौहद्दी
लेकिन कदम नहीं बढ़ा पाती
खुद की दिशा में
हर बार एक कविता की तलाश में
वह चौखट तक आती है
उल्टे पाँव लौटने को
कि रोज़मर्रा की परछाईयाँ
कौन पकाएगा
चूल्हे की आंच में
वह बनाती है
शब्दों के महज़ चिमटे
मौन की रोटियाँ सेंकने के लिए
कुछ कह नहीं पाना
शब्दों की अधिकता से
और अधिक कठिन हो जाता है
इसलिए वह मौन के धरातल
और कविता के आसमान के बीच
एक ख़ोह में जीती है

त्रिशंकु की तरह.
</poem>
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