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यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।<br>
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम् ॥ १० ॥<br><br>
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अतिरिक्त प्रभु परमेश के साधक को विश्व अदृश्य है,<br>
बस है वही स्थिति परम, जब ब्रह्म उसको दृश्य है॥ [ १० ]<br><br>
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तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।<br>
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥ ११ ॥<br><br>
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::ऋत योग स्थिर सतत साधक, का ही केवल सिद्ध है,<br>
::शुचि तत्वगत सामायिकी योगी का योग प्रसिद्ध है॥ [ ११ ]<br><br>
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नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा ।<br>
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥ १२ ॥<br><br>
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से सुलभ कतिपय किसी को, पर ब्रह्म होता अवश्य है,<br>
दृढ़ निश्चयी जिज्ञासु साधक, ब्रह्म पाते अशक्य हैं॥ [ १२ ]<br><br>
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अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः ।<br>
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥ १३ ॥<br><br>
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::अस्तित्व के प्रति अटल निश्चय, तत्व रूप की साधना,<br>
::से प्रभु प्रत्यक्ष होते चाहे जब स्नेही मना॥ [ १३ ]<br><br>
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यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।<br>
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ १४ ॥<br><br>
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जब समूल हो नष्ट वृतियों, ब्रह्म तब ही विज्ञ हो,<br>
ब्रह्म उतना निकट जितना कि विज्ञ लक्ष्य प्रतिज्ञ हो॥ [ १४ ]<br><br>
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यथा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः ।<br>
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम् ॥ १५ ॥<br><br>
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::तब मुक्त हो जाता वह निश्चय,इसी मानव वेश में,<br>
::शुचि सत सनातन तत्व है यह गूंजता उपदेश में॥ [ १५ ]<br><br>
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शतं चैका च हृदयस्य नाड्य- <br>
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।<br>
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति<br>
विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ १६ ॥<br><br>
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उसके ही द्वारा अंत काल, प्रयाण करता जीव है,<br>
अन्य स्वकर्मानुगति पुनि जन्म पाते वे जीव हैं॥ [ १६ ]<br><br>
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अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा<br>
सदा जनानां हृदये संनिविष्टः ।<br>
तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण ।<br>
तं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छुक्रममृतमिति ॥ १७ ॥<br><br>
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::परमात्मा भी आत्मा और देह से यौं पृथक है,<br>
::ज्यों मूंज सींक से पृथक अद्भुत ,व्यंजना भी अकथ है॥ [ १७ ]<br><br>
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मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा<br>
विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् ।<br>
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्यु- <br>
रन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥ १८ ॥<br><br>
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जो श्रद्धा से अध्यात्म ज्ञान में,ब्रह्म में लवलीन हो॥ [ १८ ]<br><br>
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ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥<br><br>
 
इति काठकोपनिषदि द्वितीयाध्याये तृतीया वल्ली ॥<br><br>
 
ॐ सह नाववतु ।<br>
सह नौ भुनक्तु ।<br>
सहवीर्यं करवावहै ।<br>
तेजस्वि नावधीतमस्तु ।<br>
मा विद्विषावहै ॥<br><br>
 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥<br><br>
 
ॐ तत् सत् ॥
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