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कवच और कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों?
 
 
'यह शायद, इसलिए कि अर्जुन जिए, आप सुख लूटे,
 
व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझसे टकराकर टूटे.
 
उधर करें बहु भाँति पार्थ कि स्वयं कृष्ण रखवाली,
 
और इधर मैं लडू लिये यह देह कवच से खाली.
 
 
'तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा?
 
इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा?
 
एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,
 
सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को.
 
 
'यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है,
 
जहर पीला मृगपति को उस पर पौरुष दिखलाना है.
 
यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है,
 
जय निश्चित हो जाय, तभी रिपु के सम्मुख होना है.
 
'देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से,
 
क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़कर छल से?
 
हार-जीत क्या चीज? वीरता की पहचान समर है,
 
सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है.
 
 
'और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिये विकल है,
 
तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है.
 
कहिए उसे, मोम की मेरी एक मूर्ति बनवाए,
 
और काट कर उसे, जगत मे कर्णजयी कहलाए.
 
 
'जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में,
 
कर्ण-विजय की आश तड़प कर रह जायेगी मन में.
 
जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के बल से,
 
मुझे छोड़ रक्षित जनमा था कौन कवच-कुंडल में?
 
 
'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
 
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ.
 
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
 
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये.
 
 
'अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,
 
जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था.
 
महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला?
 
किस आपत्ति-गर्त में उसने मुझको नही धकेला?
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