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जगद् निर्मात्री / कैलाश पण्डा

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<poem>
ओ षोडशी मनमोहक
तुम्हारे नवयौवन से
पृथ्वी का तृण-तृण-कृत-कृत्य
तेरा सौंदर्य
प्रवाहित होता
शीतल जल सा
अन्तर कण सा
स्वर्ण कण सा
तुम्हारे स्मरण मात्र से ही
मानो मेरी जन्मदात्री
मेरे नेत्रों के समक्ष
उपस्थित हो जाती
शायद उसका स्वरूप ही
तुमने पा लिया हो
मुझ शिशु को
नव शहद सी मधुरता
प्रदान करने वाली
तुम्हारे लाल सुर्ख कपोल
अरूणोदय से
शक्ति प्रदान करते
अरू तुम्हारे स्तन
अतीत के आंचल में छुपाकर
मुझ बालक की क्षुधा शांत करते
तुम्हारे काले गहरे बाल
आसमान से उमड़े
मानों अब बरस पड़े
उन क्षणों की याद दिलाते
जब मेरा बचपन
अपनी छोटी-छोटी अंगुलियों से
कंघी करता था
सागर से भी अधिक गहरे
अथाह जल रूपी
दया से पूरित तुम्हारे नेत्र
हमेशा से ही
मेरे आश्रयदाता रहे हैं
तुम्हारी इन्द्रधनुषी कमर
जिस पर मैं
खेला करता था।
हे जगद् निर्मात्री !
तू ब्रह्रााण्ड का सार
मिले तेरा संग अपार
मैं तो केवल रक्तकण ही तेरा
जो सदियों से
बनता बिगड़ता
तेरी कोंख से बारम्बार
मेरा यह जीवन
तेरा प्रसाद।
</poem>
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