भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इंदुशेखर तत्पुरुष |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=इंदुशेखर तत्पुरुष
|अनुवादक=
|संग्रह=पीठ पर आँख / इंदुशेखर तत्पुरुष
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
घर से चलते हुए पहले ही चौराहे पर
मिल जाए लालबत्ती
तो मिलती ही रहती है लालबत्ती अक्सर
पूरे रास्ते हर चौराहे पर
एक तर्जनी तिरस्कारपूर्ण मुद्रा में
ठहरो!
अभी बारी नहीं है तुम्हारी
पहले निकलने की
अभी गुजरने दो
दूसरी सड़कवालों को
यही सोचते-सोचते
आ रूका सातवें चौराहे पर
सोचते हुए कि और सही एक अडंगा
और सही दो मिनट
पहुंच ही लूंगा मंजिल तक
जब निकला हूं घर से अपने दुपहिया पर।
मेरी ही तरह सोच रहे होंगे
मेरे सहपंथी-
यातायाती इस सड़क के जिस पर
चल रहा हूं मैं अटक-अटक कर
और लालबत्ती अभी तक लाल है सातवें चौराहे की।
हरे सिग्नल की प्रतीक्षा में
बार-बार कलाई घड़ी देखती
स्टार्ट खड़ी है सारी गाड़ियां
बाइक, स्कूटर, टैक्सी, कार, स्कूल बस
होने को उड़न छू
एक हाथ उद्यत, छोड़ने को क्लच
दूसरा व्यग्रता से मसलता हुआ एक्सीलरेटर
टाइम हो चुका कब का पूरा
और लालबŸाी अभी तक लाल है।
गुर्रा रहे हैं सारे एंजिन
पीं-पीं, क्रीं-क्रीं, घुर्र-घुर्र
हुआं-हुआं, पों-पों का समवेत
कपालभेदी शोरशराबा
सफेद, काले धुआं के बादल
पसीनों से लथपथ चालकों के ललाट-चेहरे
कुंकुम को घोलता
नासाग्र से टपकता हुआ
अरुणाभ स्वेदजल बार-बार
पल्लू से पोंछती बेबस चालिकाएं
प्रतीक्षा-दर-प्रतीक्षा
और लालबत्ती अभी तक लाल है।
ट्रैफिक अब तक चार बार
खुलकर, हो लिया होता बंद
जो नहीं बिगड़ती इस तरह अचानक
बत्ती व्यवस्था शहर के
इस व्यस्ततम चौराहे की
और क्षणभर में वह घट गया प्रसंग
नहीं थी जिसकी कोई आशंका या पूर्वयोजना
अकारण अटका हुआ सारा हुजूम
जो हो चुका था थक कर चूर
समय के असहनीय बोझ से
जोहता बाट अपनी बारी की ईमारदारी से
छूट पड़ा एक साथ
वेगवती नदी के उफान-सा
फूट पड़ा सारा जमा ट्रैफिक
स्तब्ध रह गए आड़ी सड़क वाले
चलते-चलते ठिठक कर
रह गये हक्के-बक्के एकदम
मिल रही थी जिनको हरी बत्ती मुफ्त में
अब तक अनाधिकृत रूप से।

लालबत्ती अभी भी लाल थी और धड़ाधड़
दौड़े चले जा रहे थे लोग अपनी राह
जैसे सरपट दौड़ते
पगलाये घोड़ों का विशाल झुण्ड
भौंचक देखती ट्रैफिक पुलिस असहाय
और रौंदी जा रही थी लालबत्ती
उमड़ते जन सैलाब के घरघराते पहियों तले।

टूट जाते हैं ढांचें इसी तरह
जो होते हैं अनाधिकृत खड़े
हमारी छातियों पर
करते अतिक्रमण।

</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
8,152
edits