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|रचनाकार=इंदुशेखर तत्पुरुष
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|संग्रह=पीठ पर आँख / इंदुशेखर तत्पुरुष
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<poem>
नहीं बहुत फर्क पड़ता है
तुम्हारी उपस्थिति से -
अब डरती हूं मैं
कि तुम्हारा नया रूप जिसमें अब
शायद ही शामिल हूं मैं
- या कि तिनके की नोक भर शामिल
मेरे उस पिरामिड को उलटकर न रख दे
जिसका आधार हमारी स्मृतियों ने रचा है।

पिरामिड की अभेद्यता में सुरक्षित
हमारी ही सही वह मम्मी
मैं हगिर्ज नहीं देना चाहती उसे छूकर
पुनर्जीवित करने का अधिकार तुमको।
ठीक है; मैं कब मुक्त हो पायी तुम्हारे बंधन से
पर सीख लिया है मैंने भी
बंदी रहते हुए बंदी बना लेने का कौशल

अब तो जान गये होओगे तुम कि
क्यों मैं कर देती हूं चिंदी-चिंदी
वे लिफाफे-बिना पढ़े
लिखावट देखकर तुम्हारी
या रख देती हूं फोन - निःशब्द
अगर उधर से आवाज तुम्हारी हो।

</poem>
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