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चाह की पीड़ / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
हल्की-हल्की सी
चाह की पीड़ा
मानों नीड़ हो
जीवन का
जिसमें सुन्दर स्वप्न
अरू मौन सृजन
कल्पनाओं का
ना स्वार्थ
ना गरिमा
एक पागलपन सा कह दो
कहदो जीवन का सार सा
लुट जाने को
आतुर अन्तर
सम्पूर्ण वासनाएं
क्षीण सी
केवल वही वह
संगीत देती
मेरे अन्तः स्थल को।

</poem>
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