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|रचनाकार=मनोहर 'साग़र' पालमपुरी
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[[Category:ग़ज़ल]]

हो सके तुझ से तो ऐ दोस्त! दुआ दे मुझको

तेरे काम आऊँ ये तौफ़ीक़ ख़ुदा दे मुझको


तेरी आवाज़ को सुनते ही पलट आऊँगा

हमनवा ! प्यार से इक बार सदा दे मुझको


तू ख़ता करने की फ़ितरत तो अता कर पहले

फिर जो आए तेरे जी में वो सज़ा दे मुझको


मैं हूँ सुकरात ज़ह्र दे के अक़ीदों का मुझे

ये ज़माना मेरे साक़ी से मिला दे मुझको


राख बेशक हूँ मगर मुझ में हरारत है अभी

जिसको जलने की तमन्ना हो हवा दे मुझको


रहबरी अहल—ए—ख़िरद की मुझे मंज़ूर नहीं

कोई मजनूँ हो तो मंज़िल का पता दे मुझको


तेरी आगोश में काटी है ज़िन्दगी मैंने

अब कहाँ जाऊँ? ऐ तन्हाई! बता दे मुझको


मैं अज़ल से हूँ ख़तावार—ए—महब्बत ‘साग़र’ !

ये ज़माना नया अन्दाज़—ए—ख़ता दे मुझको.



''तौफ़ीक़=सामर्थ्य; अक़ीदा=विश्वास, धर्म, मत, श्रद्धा; अहल—ए—खिरद=बुद्धिमान लोग''