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{{KKRachna
|रचनाकार=मनोहर 'साग़र' पालमपुरी
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
तूफ़ानी शब, घोर अँधेरा, मंज़िल दूर, हवाएँ सर्द
पेट की ख़ातिर ऐसे में परदेस गया था उसका मर्द
धूल चाटते नंगे जिस्मों को, पीठ से चिपके पेटों को
रंगों की पहचान ही क्या है सुर्ख़, सफ़ेद, हरा कि ज़र्द
आम इन्सान के ग़म में डूबी जो दिलकश तहरीर करे
इसको ही कहती है दुनिया जनता का सच्चा हमदर्द
चाहे कितनी उजली रक्खे चादर कोई गुनाहों की
पड़ ही जाती है दामन पर इक दिन रुस्वाई की गर्द
मेले में जो यार मिला था आज न जाने है वो कहाँ
अब तो हमें ही सहना होगा तन्हा तन्हाई का दर्द
मैंने, तूने, उसने जो महसूस किया तन्हाई में
हर चेहरे से झलक रहा है मेरा तेरा उसका दर्द
भटक रहा है आज भी बचपन और शबाब की गलियों में
जाने क्या गुल और खिलायेगा ये दिल आवारागर्द
उसने इक—इक शेर की खातिर ख़ून जलाया है दिल का
यारो! ‘साग़र’ से मत पूछो क्यों है उसका चेहरा ज़र्द
{{KKRachna
|रचनाकार=मनोहर 'साग़र' पालमपुरी
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
तूफ़ानी शब, घोर अँधेरा, मंज़िल दूर, हवाएँ सर्द
पेट की ख़ातिर ऐसे में परदेस गया था उसका मर्द
धूल चाटते नंगे जिस्मों को, पीठ से चिपके पेटों को
रंगों की पहचान ही क्या है सुर्ख़, सफ़ेद, हरा कि ज़र्द
आम इन्सान के ग़म में डूबी जो दिलकश तहरीर करे
इसको ही कहती है दुनिया जनता का सच्चा हमदर्द
चाहे कितनी उजली रक्खे चादर कोई गुनाहों की
पड़ ही जाती है दामन पर इक दिन रुस्वाई की गर्द
मेले में जो यार मिला था आज न जाने है वो कहाँ
अब तो हमें ही सहना होगा तन्हा तन्हाई का दर्द
मैंने, तूने, उसने जो महसूस किया तन्हाई में
हर चेहरे से झलक रहा है मेरा तेरा उसका दर्द
भटक रहा है आज भी बचपन और शबाब की गलियों में
जाने क्या गुल और खिलायेगा ये दिल आवारागर्द
उसने इक—इक शेर की खातिर ख़ून जलाया है दिल का
यारो! ‘साग़र’ से मत पूछो क्यों है उसका चेहरा ज़र्द