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'''मैं पाषाण-हृदय हूँ;''' ऐसा मुझे मत बोलो प्रिय पत्थरों से ही फूटती हैं धाराएँ पहाड़ियों का सीना चीर कर उन्मुक्त होकर तृप्त करती हैं प्यासे तन-मन, कण-कण को; किन्तु इन्हें द्रवित करने को चाहिए- निश्छल भगीरथ-प्रयास शंकर सा अडिग, अदम्य साहस, जो पवित्र उफनती धाराओं को शिरोधार्य कर सके हँसते हुए। '''मैं चाहती हूँ द्रवित होना;''' किन्तु मुझे प्रतीक्षा है- निश्छल भगीरथ-शंकर की जो पिघला सके पाषाण- हृदय और जलधारा में रूपांतरित मेरे चिर-प्रवाह को सँभाले- सँवारे। वचनबद्ध हूँ- तृप्ति हेतु ; किन्तु '''तुम भगीरथ-शिव बनने का वचन दे सकोगे क्या प्रिय ?''' '''-0-'''
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