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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है।
जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है।

केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं,
भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है।

कुछ तो बात यक़ीनन है काग़ज़ की कश्ती में,
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है।

भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी मिट जाती,
धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है।

करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता,
शोर मचाने वाला केवल शोर मचाता है।
</poem>
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