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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ।
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ।

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं,
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ।

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको,
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ।

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ,
चाहे फुटपाथ मिले या के गटर, खा जाऊँ।

इस मुई भूख से कोई तो बचा ले मुझको,
इस से पहले कि मैं ये शम्स-ओ-क़मर खा जाऊँ।
</poem>
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